बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
प्रश्न- शुंग-सातवाहन काल क्यों प्रसिद्ध है? इसके अन्तर्गत साँची का स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर -
शुंग- सातवाहन काल (समय 187 75 ई. पू.) - मौर्य शासन काल के अंतिम शासक वृहद्रथ के समय शासन में अनियमितताएँ उत्पन्न हो गईं और सेना में विद्रोह हो गया। सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने वृहद्रथ को मारकर समस्त मध्ये भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया। उसका वंश शुंग वंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। लगभग यही समय सातवाहन वंश का आरम्भ मौर्य वंश के साथ ही हुआ था। पराक्रमी शासन खारवेल हुआ यह पुष्यमित्र शुंग का समकालीन था। इसने आगे के समय में पुष्यमित्र को परस्त कर दिया। इस तरह समस्त उत्तर भारत पर अपनी विजय अर्जित की। इस युग में बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण तीनों धर्मों से सम्बन्धित कलाकृतियों की रचना हुई। स्तूप निर्माण के साथ-साथ मन्दिरों व गुफाओं में नवीन कलाकृतियों की रचना की गई। शुंग राजाओं ने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु स्तूप व गुफाओं का निर्माण निरन्तर करते रहे। इस समय के प्रसिद्ध मूर्तिकला के नूमनों में साँची व भरहुत के विशाल स्तूप अपनी भव्यता के लिये प्रसिद्ध हैं। मौर्ययुगीन दृढ़ केन्द्रीभूत सत्ता की समाप्ति से कला, राजकीय नियंत्रण से मुक्त होकर जनसामान्य तक पहुँचकर अधिक लोकप्रिय हुई। इस युग में कलाकृतियाँ, राजकीय सहयोग की अपेक्षा जनसामान्य के योगदान से निर्मित हुई। इसमें कथानकों का वर्णनात्मक रूपांकन था। इसके साथ ही इस युग में स्वतन्त्र मूर्तियाँ भी बनाई गईं।
रामानाथ मिश्र के कथनानुसार "मौययुग के बाद कला का क्लासिकल (शास्त्रीय-युग) प्रारम्भ होता है।"
इस युग में कला के स्थानीय देश के स्थान पर भौगोलिक विस्तार के कारण कला का सर्वदेशीय (सभी देश का रूप) उभरने लगा। इसके अन्तर्गत मध्य देश में साँची और भरहुत, उत्तर पूर्वी भारत में 'बोधगया तथा उड़ीसा के क्षेत्र, दक्षिण भारत में अमरावती और नागार्जुनकोण्ड तथा पश्चिम भारत में कार्ले, भाजा, नंदसुर, पीतल खोरा इत्यादि स्थानों पर विशाल बौद्ध स्तूपों और गुहा चैत्यों का निर्माण हुआ।
साँची का स्तूप (70-25 ई. पू.) - साँची (अक्षांश 23°28" उत्तर और देशान्तर 77°45" पूर्व) विदिशा से 9 किलोमीटर उत्तर पश्चिमी की ओर, मध्य रेलवे के बीच तथा भोपाल जंक्शन के बीच, रायसेन जिले में स्थित है। यह अपने अप्रतिम बौद्ध स्मारकों तथा पुरातात्विकता के कारण साँची सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है। इसकी खोज जर्नल टेलर ने की। जर्नल टेलर ने जनता का ध्यान साँची के स्तूप की ओर आकृष्ट किया। सम्राट अशोक द्वारा निर्मित 84,000 स्तूपों में से साँची का यथोचित, उत्कृष्ट स्थान है। इसमें स्तूप 1, 2, 3 सुरक्षित प्राप्त हुए हैं। सन् 1881 ई. तक स्मारकों के संरक्षण की ओर किसी का भी ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। परन्तु सन् 1881 ई. में मेजर कोल ने इस कार्य को गम्भीरता से लिया। तीन वर्ष के अल्पकाल में ही इसके आस-पास के स्थानों की सफाई करवाई व दीवारों की दरारों को भरवाकर गिरे हुए पश्चिमी व दक्षिणी तोड़ों एवं भूवेदिका तथा स्तूप 3 के तोरणों को यथास्थान प्रतिष्ठित कराया। तत्पश्चात् बचे हुये कार्य को भारतीय पुरातत्व के महानिर्देशक सर जॉन मार्शल ने पूर्ण करने का सफलतापूर्वक प्रयत्न किया। सन् 1912 एवं 1919 ई. के मध्य मार्शल स्मारकों को उनकी वर्तमान दशा में लाये। तत्पश्चात् सन् 1936 ई. में मोहम्मद हमीद कुरैशी पहाड़ी की ढलान पर स्थित स्तूप 1 व 2 के मध्य उत्खनन करवाकर एक बौद्ध विहार के अवशेषों को प्रकाश में लाये। इसके पश्चात् कोई भी उत्खनन (खुदाई से प्राप्त सामग्री) कार्य नहीं हुआ परन्तु स्मारकों का परीक्षण एवं संरक्षण निर्वाध (बिना रुके कार्य चलना) गति से चलता रहा।
शुंग कालीन मूर्तिकला के प्रमुख नमूने साँची के अशोक कालीन विशाल स्तूप के चारों ओर प्रदक्षिणा की दोहरी वेदिका एवं चारों दिशाओं से अलंकृत तोरण द्वार हैं। साँची के स्तूप लगभग ढाई सौ फीट ऊँची पहाड़ी पर तीन स्तूप स्थित हैं। जिनमें से बीच वाले सर्वाधिक बड़े अंडाकार स्तूप और उसके तोरणद्वारों की कला ही संसार में प्रसिद्ध है। अशोक के समय में यह स्तूप केवल ईंटों पर आधारित बना हुआ था। तत्पश्चात् लगभग उपेक्षित हाल में ही पड़ा रहा परन्तु शुंग राजाओं ने इसके चारों ओर पत्थर की दोहरी वेदिका बनवा दी। सातवाहनों ने इसके चारों दिशाओं में तोरण द्वार बनवाये। ये चारों तोरण द्वार बनावट में एक समान ही हैं परन्तु उन पर बनाई गई (उकेरी गई) शिल्पकृतियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। साँची के स्तूप की परिधि 36 मीटर है और ऊँचाई लगभग 16 मीटर है। चारों दिशाओं में स्थित तोरण द्वार चौंतीस फुट ऊँचे हैं। इनके नीच की ओर चौपहले खम्भे हैं। ये खम्भे 14 फुट ऊँचे हैं। खम्भों के ऊपर तिहरी बड़ेरिया है। यह मध्य में थोड़ी कमानीदार है एवं इसका कुछ हिस्सा बाहर की ओर मुड़ा हुआ है। इन बड़ेरियों को सिंह, हाथी, बौने इत्यादि अपने ऊपर लादे हुए दृष्टव्य हैं।
इतिहास - अग्रसर कई शताब्दियों तक एक प्रसिद्ध परीक्षण केन्द्र के रूप में ज्ञात साँची में सम्भवतः मौर्यकालीन सम्राट अशोक (273-236 ई. पू.) ने इस जगह को स्तूप तथा स्तम्भ निर्माण हेतु पसन्द किया। ऐसा विदित है कि बुद्ध की अस्थियों पर बनाये गये आठ प्रारम्भिक स्तूपों में से सात को अशोक ने खुदवाया था और उनमें रखे हुये धातुओं को निकालकर उन्हें अपने बनाये असंख्य स्तूपों में रखवाया था जो सम्राट के साम्राज्य में विस्तीर्ण थे। विरक्त जीवन तथा साधना के उपयुक्त शांत वातावरण एवं विदिशा जैसी समृद्ध नगरी के पास होने के कारण भी बौद्ध भिक्षुओं के लिए साँची एक आदर्श स्थल भूमि रही है। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् इस बौद्ध स्थली को आघात पहुँचा। इसी समय अशोक के स्तूप को भी क्षति पहुँची। परन्तु शीघ्र ही इसको पुनः सुरक्षित किया गया। सातवाहन राजाओं के समय साँची के तोरण द्वारों को अलंकृत किया गया परन्तु कुषाण साम्राज्य में इसका निर्माण शिथिल पड़ा गया जिसका अंत गुप्त वंश के उद्भव के साथ हुआ। यह ज्ञात नहीं हो सका कि साँची की बौद्धस्थली का अंत किस प्रकार हुआ यहाँ ऐसा कोई बौद्ध स्मारक नहीं है, जो तेरहवीं (13वीं ई. शती) को सिद्ध कर सके। इसके विपरीत इस पत्थर पर ऐसे अनेक फलक प्राप्त हुए जिन पर भगवान विष्णु, श्री गणेश, महिषासुर मर्दिनी, इत्यादि हिन्दू देवी-देवताओं की आकृतियाँ बनी हैं। इससे यह कहना अत्यन्त कठिन है कि बौद्धों ने इस स्थान को स्वयं त्यागा या आन्तरिक बुल के अभाव से अपने अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ रहे। यह बौद्ध धर्म क्रमशः (धीरे-धीरे) सर्वग्राही हिन्दू धर्म में रम (विलीन) हो गया।
स्तूप की रचना - मूलतः साँची का स्तूप अशोक द्वारा लगभग उसी काल में बनवाया गया था जब इसके पास अशोकीय स्तम्भ खड़ा था तब से (परवर्तीकाल) अब तक इसमें अत्यधिक परिवर्तन हुए। वर्तमान काल में ऊपर के छत्र तथा वेदिका को छोड़कर गुम्बद की ऊँचाई 54 फुट है। खगोल आकार के (आधार) का व्यास लगभग 120 फुट है। गुम्बद के चारों ओर लगभग 16 फीट ऊँचा चबूतरा है, जो प्रदक्षिणापथ (घूमना अथवा उस स्थल का गोल चक्कर लगाने वाला रास्ता) का काम करता है। वेदिका के अन्दर 7 फीट के प्रदक्षिणापथ पर शिलापट्ट बिछे हैं। यहाँ तक पहुँचने के लिए दक्षिण दिशा की ओर दोहरा (सीढ़ी का) सोपान मार्ग है। इसके ऊपर हमिका तथा त्रिपत्र सहित छत्र हैं। 9 फीट ऊँचे अष्टकोणीय स्तम्भों को एक-दूसरे से बाँधने के लिए 2 फीट ऊँचा ऊष्णीय है। इन स्तम्भों के मध्य 3.15 इंच के अन्तराल में दो-दो फीट चौड़ी सूचियाँ लगी हैं। अलंकृत तोरण 34 फीट ऊँचे हैं। ऊँची पहाड़ी पर स्थित इस स्तूप की छटा रमणीक एवं हृदय को प्रफुल्लित करने वाली है।
तोरणों की रचना - सभी तोरण द्वार ईसा पूर्वप्रथम शताब्दी के हैं। सर्वप्रथम दक्षिणी द्वारा बनवाया गया था। यह मुख्य प्रवेश द्वार था। क्रमशः (धीरे-धीरे) उत्तरी, पूर्वी व पश्चिमी तोरण द्वार बने। इन तोरणों में चौपहल दो खम्भे हैं, जो 24 फुट ऊँचे हैं। इन पर थोड़ी-सी कमानीदार ऊपर की ओर तनी हुई तीन सूचियाँ हैं, जिनके बीच की दूरी इनकी चौड़ाई से कुछ ही अधिक है। इसके मध्य में छोटे-छोटे तीन स्तम्भ हैं, जो इन्हें साधने का काम करते हैं। स्तम्भों पर वर्गाकार पत्थर के टुकड़ों पर ये सूचियाँ रखी हुई हैं, जो दोनों तरफ से बाहर की ओर निकली हुई हैं। सबसे ऊपर खम्भे पर तथा सूची पर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न थे। अब ये खण्डित अवस्था में हैं। इन सम्पूर्ण तोरणों की ऊँचाई 34 फीट है। सूचियों के बाहर की ओर हाथियों की मूर्तियाँ हैं जो मानों ऊपर की मूर्तियों को संभाले हैं। सबसे नीचे की सूची व स्तम्भ के बीच की दूरी को भरने के लिए नीचे दोनों ओर द्वारपाल यक्ष बने हैं। खम्भों के शिखरों पर पीठ से पीठ मिलाये शेर, हाथी तथा वामन हैं, इनके आगे का भाग बनाया गया है। इन आकृतियों के ऊपर स्त्रियों की सुन्दरता तथा शोभनीय आकृतियाँ हैं। सबसे नीचे वाली सूची के दोनों हाथों से साधे हुए हैं। इन खम्भों व सूचियों को विभिन्न जातक कथाओं तथा बौद्ध के जीवन की घटनाओं से चित्रित किया गया है। साँची के तोरणों तथा सूचियों के दृश्य चित्रों एवं अलंकरणों को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सका है -
साँची के शिल्प की शैली - तोरणों पर भगवान बुद्ध के जीवन सम्बन्धी दृश्यों तथा उनके पूर्व जन्मों के दृश्यों का अंकन दृष्टव्य है। यह अर्द्ध चित्रों एवं उभरी हुई प्रतिमाओं के रूप में है। अर्द्ध चित्रों में अत्यन्त बारीकी व सफाई हैं। यद्यपि शिल्प को देखने पर यह ज्ञात होता है कि शिल्पी ने पाषाण काल का यह माध्यम कुछ समय पहले ही अपनाया, क्योंकि साँची की शैली कुछ चिपटे व सपाट तौर की है तथा खुदाई ऐसी की इन्हें मूर्तियों के स्थान पर अर्द्ध चित्र कहना ही अधिक उपयुक्त होगा। साँची का शिल्पी एक ही अर्द्ध चित्र में सभी घटनाओं का समावेश कर देना चाहता है। वास्तव में साँची की यह कला 'लोक-कला' के समान है जिसका अंकन पाषाण पर किया गया है। श्री रामकृष्ण दास जी के मतानुसार "इसकी खुदाई का आदर्श लकड़ी या हाथी दाँत की नक्काशी जान पड़ता है। इनमें से दक्षिण वाले तोरण पर लेख भी है कि वह विदिशा नगरी के हाथी दाँत पर नक्काशी करने वाले कारीगरों के द्वारा खोदा गया है।"
साँची के तोरणों में भगवान बुद्ध के जन्म-जन्मातरों की घटनाओं को तो अंकित किया गया है परन्तु बुद्ध की मूर्ति का अंकन कहीं भी नहीं किया गया है। उसके स्थान पर उनके प्रतीकों को अंकित किया गया है। कलाकार को जहाँ बुद्ध की मूर्ति आँकनी (बनानी) थी, वहाँ उनका प्रतीक रखा दिया गया है। प्रतीक के रूप में स्तूप, चरण चिह्न, कमलपुष्प, छत्र व बोधिवृक्ष इत्यादि का अंकन किया गया है। इसी में स्तम्भ का निर्माण भी सांकेतिक रूप में किया गया है। साँची की मूर्तिकला में आकृतियों की बहुत भीड़-भाड़ है तथा स्थान (Space) की कमी दृष्टव्य है एवं माडलिंग में आधार पर ही उभार दिया गया है।
विषय - साँची में विषय-वस्तु की दृष्टि से अधिकांशतः जातक कथाओं का अंकन मिलता है। इसके अतिरिक्त पारिवारिक दृश्य, युद्ध के दृश्य, प्रेमी युगल, संन्यासी, पशु-पक्षी, पूजा के दृश्य व अंलकरण इत्यादि अधिकांश बनाये गये हैं। साथ ही वानर, किन्नर, यक्ष-यक्षिणी, वृक्षिका, सिंह, हाथी नृत्य के दृश्य, जलपान के दृश्य भी बनाये गये हैं। दोहरी वेष्टिनी पर जो बड़ी भारी व ऊँची है, स्थान-स्थान पर अलंकरण, गज लक्ष्मी, कमल-कलश एवं अधखिले कमल इत्यादि बनाये गये। जगह-जगह पर गोमूत्रिका बेलें बनाई गई हैं परन्तु कहीं पर भी बुद्ध की मूर्ति नहीं बनाई गई। तोरणों पर भी अनेक उभरी हुई प्रतिमायें हैं।
जातक कथाओं के दृश्य - ये जातक कथाएँ गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों से सम्बन्धित हैं। बौद्धों का विश्वास था कि बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए गौतम बुद्ध को भी पशु-पक्षी से लेकर मनुष्य जीवन तक की असंख्या योनियों से गुजरना पड़ा था। साँची के तोरण पर अंकित केवल पाँच जातक दृश्यों को पहचाना गया है वे जातक दृश्य हैं छदन्त जातक, वेस्सान्तर जातक, साम जातक, महाकीय जातक एवं अलम्बुस जातक। इसमें वे स्सान्तर जातक सम्बन्धी प्रमुख घटनायें उत्तरी तोरण की एक बहेड़ी पर, साम जातक उत्तरी तोरण के बायें स्तम्भ पर और छदन्त जातक कथायें 3 बहेड़ियों पर अंकित हैं। वेस्सान्तर जातक तथा साम जातक दृश्य में इन्द्र उपस्थित हैं। छदन्त जातक के विभिन्न अंशों पर बायीं ओर के एक कोने में षड़दंत्य छदन्त (छः दाँत वाले हाथी) अपने दल के हाथियों के साथ जाता हुआ दृष्टव्य है।
दक्षिण दिशा के तोरण - दक्षिण दिशा के तोरण पर कमलों के बीच लक्ष्मी, सम्राट अशोक की रामग्राम यात्रा, अनेक अन्य जातक कथाएँ तथा भगवान बुद्ध के प्रतीकों की उपासना इत्यादि के दृश्य हैं।
उत्तर दिशा के तोरण - उत्तरी दिशा के तोरण पर भी अनेक जातक कथायें अंकित हैं। जैसे वेस्सान्तर जातक; ऋषि श्रृंग जातक मार का आक्रमण, छदन्त जातक व जेतवन दान आदि की कथायें भी हैं। कहीं पर भी बुद्ध के परिनिर्वाण का दृश्य है। एक स्थान पर वानरों को भगवान बुद्ध के प्रतीक 'बोधिवृक्ष' की पूजा करने के लिए जाते हुए दृष्टव्य है। वेस्सान्तर जातक के दृश्य में राजा अपने पुत्र का हाथ पकड़े हुए जा रहे हैं। रानी की गोद में उनकी पुत्री है। रास्ते में गाँव के लोग उनको सम्मान दे रहे हैं वे हाथ जोड़कर खड़े हैं। उनके वस्त्र और पगड़ियाँ सादा है। शरीर पर आभूषण नहीं है। किसान स्त्रियाँ बच्चों सहित झोपड़ियों के बाहर बैठी हैं एवं किसान अपने खेतों की ओर जाते हुए दृष्टव्य हैं। यह लोक जीवन से सम्बन्धित उदाहरण है। वेस्सान्तर जातक के ही एक अन्य अर्द्धचित्र में नगर के भवन दिखाई दे रहे हैं। उनके झरोखे में स्त्री एवं पुरुष बैठे हुए दृष्टव्य हैं। इस दृश्य से नगर के भवनों के स्थापत्य का ज्ञान हो जाता है। उस समय तीन-चार मंजिलों तक मकान बनाये जाते थे। नगर के चारों ओर एक खाई खोद दी जाती थी और जब शत्रु सेना उस पर आक्रमण करती थी तो उसे पानी से भर दिया जाता था।
पश्चिमी तोरण द्वार पर हाथियों द्वारा वृक्ष-पूजा के दृश्य अस्थियों के लिए युद्ध व महाकपि जातक इत्यादि हैं। भगवान बुद्ध की अस्थियों के लिए युद्ध के दृश्य में राजा-महाराजा अपने हाथी और घोड़े सजाकर युद्ध करने जा रहे हैं। एक ओर नगर का दृश्य बनाया गया है। पूर्व दिशा में तोरण के बाहरी ओर की बीच वाली बड़ेरी में भगवान बुद्ध के महाभिमिष्क्रमण का दृश्य अंकित है। जिसमें साँची की कला अपनी पूर्णता तक पहुँच गई है। इसमें कपिलवस्तु नगर के मकान दुमंजिले व तिमंजिले दिखाये गये हैं। उनके झरोखों में से स्त्री-पुरुष झांक रहे हैं। प्राचीर बनाने के लिए उनका केवल थोड़ा सा भाग आंका गया है। नगर की गलियों में चहल-पहल दर्शायी गई है। वैसे तो भगवान बुद्ध रात्रि के अंधेरे में घर त्याग कर चले गये थे परन्तु शिल्पी अपने सम्पूर्ण अर्द्ध चित्र को भरा हुआ देखना चाहता है। अतः वहाँ पर खाली जगह छोड़ने की गुंजाइश नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि जो सौष्ठव आ गया है वह सम्भवतः अकेले बुद्ध को अंकित कर देने से नहीं आता अतएव शिल्पी इसी अर्द्धचित्र को कई दृश्यों में विभक्त कर देना चाहता है। इसलिए वह बोधिवृक्ष और उसके चारों ओर वेष्टिनी बनाकर एक वातावरण का सृजन कर देता है। छदंत सिद्धार्थ के छोड़े कंथक' को लिये जा रहा है। इस समय घोड़े पर छतरी लगाये हुए है जो सिद्धार्थ का प्रतीक चिह्न है। घोड़े पर जीन पड़ी दर्शायी गई है। घोड़े के चारों खुर देवगण अपने हाथों में साधे हुए हैं जिससे आवाज न हो और रात्रि की निःस्तब्धता न टूटे। अश्व आगे बढ़ता प्रतीत होता है। अर्द्ध चित्र के एक कोने में चरण अंकित हैं जिन पर पद्म का चिह्न बना हुआ है। यह भी बुद्ध का प्रतीक है। छंदक उनके आगे लौट रहा है। अब कंथक पर न जीन है और न ही छत्र है। वह पीछे मुड़कर ऐसे देख रहा है वह अपनी कोई अमूल्य वस्तु पीछे छोड़ आया है। उसकी पीठ पर एक गठरी है। पीछे-पीछे देवगढ़ भी आ रहे हैं।
पूर्व दिशा वाले इसी तोरण की ऊपर वाली बड़ेरी में 'सात बुद्धों की तपश्चर्या का अंकन है इसमें स्तूपों को प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है व सबसे नीचे वाली बड़ेरी में सम्राट अशोक व उसकी सामाज्ञी और पुत्र भगवान बुद्ध की पूजा करने के लिये आये हैं। उनके साथ वादक लोगों का एक दल भी है। दृश्य के बीच में एक विशाल बोधिवृक्ष का अंकन किया गया है। इस अर्द्धचित्र की गणना भी साँची के सर्वोत्कृष्ट चित्रों में की जाती है। पूर्व दिशा के तोरण की अन्दर की ओर की ऊपरी वाली दो बड़ेरियों में से ऊपर वाली बड़ेरी में सात बुद्धों की तपश्चर्या का दृश्य अंकित है। इसके नीचे वाली बड़ेरी में बुद्ध द्वारा बुद्धत्व प्राप्ति का दृश्य है जिसमें सम्पूर्ण पशु जगत् भी वहाँ दर्शाया गया है।
दक्षिण दिशा की ओर के तोरण पर शत्रु राजा की चतुरंगिणी सेना के युद्धों का दृश्य है। नगर के मकान दुमंजिले एवं तिमंजिले हैं। उनके बाहर खाई खुदी है जिसमें कमल खिलें हैं। दक्षिण दिशा की ओर वाले तोरण के अन्य अर्द्धचित्र में सरोवर में कमल खिले अंकित किये गये हैं। कमलों के सरोवर में हाथी हैं। ये प्रसन्न मुद्रा में अंकित किये गये हैं। उन पर राजा लोगों को सवार दिखाया गया है। साँची के शिल्पकारों को मयूर अधिक प्रिय था। युगल मयूर के अंकन के साथ ही फूलों से लदे हुए वृक्षों को यथार्थ एवं सौन्दर्ययुक्त बनाया है। दक्षिण दिशा वाले तोरण द्वार के एक दृश्य में श्री देवी का अंकन किया गया है। इसमें बीच में खिले हुए कमल के फूल पर भी श्री देवी खड़ी हैं। उनके पैरों में कड़े हैं। कमर में मेखला है। शरीर का ऊपरी भाग निर्वस्त्र है। उनके गले में माला है और सिर पर पगड़ी है। उनके दोनों ओर दो कमलों पर हाथी खड़े हैं। उत्तरी तोरण पर उनका रूप गज लक्ष्मी के रूप में दर्शाया गया है। सर जॉन मार्शल ने साँची के प्रस्तर शिल्प में अंकित श्री देवी को बुद्ध जननी माया देवी माना है। साँची के शिल्प में यक्षों को पुरुषों जैसा ही बनाया गया है। उन्होंने राजाओं के समान ही वस्त्र व आभूषण पहने हैं। यक्षणियों को भी अत्यन्त सुन्दरता के साथ आँका गया है और उन्हें आम की डालों को पकड़े इस प्रकार खड़ा किया गया है जिस प्रकार से माया देवी बुद्ध जन्म के समय शाल वृक्ष की डाल पकड़कर खड़ी हुई थीं। इन्हें वृक्षिका कहा जाता है। साँची में मोटे पैर वाले बौनों का भी अंकन किया गया है जो कहीं-कहीं पर बड़ेरियों का बोझा लादें हुए अंकित किये गये हैं। साँची के इस शिल्प में यद्यपि बुद्ध की जन्म-जन्मान्तरों की जातक कथाओं का अंकन किया गया है परन्तु उसमें कहीं भी धार्मिकता का पुट दृष्टिगत नहीं है। सर्वत्र लोककला की स्पष्ट छाप (प्रभाव) ही दृष्टिगोचर है।
गौतम बुद्ध के जीवन-दृश्य - साँची के शिल्पांकन में बुद्ध के अलौकिक स्वरूपों की अधिकता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न स्थलों पर गौतम बुद्ध से सम्बन्धित आश्चर्यजनक घटनाओं को स्थान दिया गया है, जिनमें उनके आकाशचारी, जल पर चलने, उन्मत्त हाथी को वश में करने, अंगों से अग्नि निकालने, गुठली से आम का वृक्ष तुरन्त उत्पन्न करना इत्यादि। इसके अलावा उनकी उपस्थिति को केवल कतिपय (कुछ) लाक्षणिक चिह्नों और व्यंजनों द्वारा ही सूचित किया गया है। जैसे- छत्र से आवृत (ढका हुआ) सजा हुआ खाली पीठ वाला घोड़ा, सिंहासन, धर्मचक्र, विहार स्थल, चरण-चिह्न और त्रिरत्न इत्यादि।
सम्भवतः साँची का शिल्पकार इसके माध्यम से उस समय के समाज को प्रतिबिम्बित करना चाहता था। साँची के शिल्प में अंकित स्त्री-पुरुषों के मुख पर चिंतन और आध्यात्मिकता की. छाया नहीं दिखाई देती वरन् एक सरलतापूर्ण अभिव्यंजना की स्पष्ट झलक है। इस प्रकार साँची की कला अधिक स्पष्ट है, जो उस समय के समाज की झाँकी को स्पष्ट देख सकते हैं। इससे तत्कालीन रहन-सहन, पहनावा आदि के ज्ञान के साथ-साथ राजाओं की शोभा यात्रा, युद्ध, राज- प्रसाद, किसानों की झोपड़ियाँ इत्यादि सभी के दृश्य हमें साँची के इन अर्द्धचित्रों में दृष्टव्य हैं। इन चित्रों का उद्देश्य धर्म की साधना करना नहीं वरन् उस समय के जीते-जागते समाज को प्रतिबिम्बत करना है।
अन्य स्तूप - पूर्वोक्त में दो बड़े स्तूपों के अतिरिक्त केन्द्रस्थल पर और भी बहुत से स्तूपों के अवशेष हैं। इनमें से कई इतने टूटे-फूटे हैं कि उनकी केवल पीठिकायें ही शेष हैं। स्तूप 3 के साथ पीछे की ओर स्तूप 4 है तथा दक्षिण में स्तूप 5 है। इनकी कला भारतीय प्रस्तर कला के प्रारम्भिक रूप का दर्शन करती है। स्तूप गोल पीठिका पर स्थित है। साफ व सुधड़ पीठिका गढ़े हुए प्रस्तर खण्ड को तराशकर सोपान की आकृति में बनाई गई है जो छठी शताब्दी के आस-पास की कृति प्रतीत होती है। स्तूप 5 के सामने दो अन्य छोटे स्तूप ऊँची चौकोर पीठिकाओं पर खड़े हैं। इसी स्तूप के लगभग 61 मीटर दक्षिण में स्तूप 12, 13, 14 और 16 का समूह है। जिनकी पीठिकायें चौकोर व सीढ़ीनुमा है। इस स्तूप समूह के पास ही दक्षिण में स्तूप 6 है। इसका भीतरी भाग समकालीन स्तूप 3 और 4 के समान पत्थर की भारी शिलाओं और टुकड़ों में बना है। स्तूप- 1 के पश्चिमी तोरण से लगभग 30 मीटर दक्षिण-पश्चिम में स्थित स्तूप 7 की रचना में भी स्तूप - 12, 13, 14 और 16 की वास्तुकला के लक्षण प्राप्त होते हैं। यह स्तूप 2.135 मीटर की ऊँचाई तक खड़ा है और बाद की एक मेधि के अवशेष से घिरा है।
स्तम्भ (खम्भे) - साँची के स्तम्भ अन्य अशोकीय स्तम्भों की तरह ही निर्मित किये गये हैं। यहाँ से प्राप्त स्तम्भ 10, 25, 26, 35 हैं। वर्तमान समय में ये भग्नावशेष रूप में दृष्टव्य हैं। ये खुदाई से प्राप्त हुये हैं। ये स्तम्भ सारनाथ के अशोक स्तम्भ के समकक्ष न होने पर भी अपने भव्य शीर्षक कारण गावदुम स्तम्भों के समान हैं। इन पर बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित घटनायें व अलंकरण बनाये गये हैं जो अन्य स्तूपों से समानता रखते हैं।
मन्दिर - बड़े स्तूप के दक्षिण-पूर्व में एक ऊँचा चबूतरा है जिसके ऊपर दो चौड़े जीनों से पहुँच जाता है। इस चबूतरे पर पत्थर के अठपहल भारी स्तम्भों की एक श्रेणी है जिस पर, पहले लकड़ी की छत टिकी हुई थी। खम्भों पर प्रारम्भिक ब्राह्मी लिपि में लेख है। यह प्रथम शताब्दी ई. पू. का है।
मन्दिर 18 - मौर्यकाल अथवा शुंगकालीन प्राचीन अर्द्ध गोलाकार पीठिका पर बना हुआ सातवीं सदी का यह धनुषाकार मन्दिर है। इस मन्दिर में सिरदलों से युक्त बारह में से नौ आकर्षक स्तम्भ और एक अर्द्धस्तम्भ सुरक्षित खड़े हैं।
मन्दिर 17 - मन्दिर 18 उत्तर-पूर्व कोने के पास छोटी पीठिका पर स्थित गुप्त वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें रचना सौष्ठव, समता, अनुपात, अलंकरणों में नियंत्रण आदि सभी विशेषतायें हैं। इस मन्दिर में केवल दो ही अंग हैं एक सपाट छत वाला वर्गाकार गर्भगृह और चार स्तम्भों पर आधारित एक अर्द्धमण्डप।
मन्दिर 9 - मन्दिर का गर्भगृह तथा अर्द्धमण्डप की पीठिका मन्दिर 18 के उत्तर-पश्चिम कोने के पार्श्व में है। इसके भग्नावशेष, अर्द्धस्तरीय तथा पीठिका को देखने से ज्ञात होता है कि मन्दिर का निर्माण गुप्तकाल के प्रथम चरण में हुआ था।
मन्दिर 31 - यह मन्दिर स्तूप 5 के समीप पूर्व की ओर अवस्थित है। यह स्तम्भों पर आश्रित सपाट छत वाला चौकोर आकार का देवालय था। आरम्भ में यह मन्दिर छठी या सातवीं सदी में बना था परन्तु दसवीं या ग्यारहवीं सदी में इसका व्यापक पुनर्निर्माण हुआ।
साँची की विशेषतायें - शुंगवंशीय साँची की विशेषतायें निम्नलिखित वर्णित हैं -
(क) खोदने की शैली - साँची पर खुदाई कर बनाये हुए विषयों की शैली ऐसी है कि इन्हें मूर्ति की अपेक्षा पत्थर पर उभारे चित्र कहना अधिक उपयुक्त है क्योंकि यह खुदाई हाथी दाँत की नक्काशी के नमूने पर की गई है। आकृतियाँ अधिक गहरी खोदी गई जिनसे वे छाया की अंधेरी पृष्ठिभूमि में तैरती हुई प्रतीत होती है। इसके दो कारण दृष्टव्य हैं एक तो आकृतियों को दक्षिण भारत के तीव्र सूर्य के प्रकाश में उचित ढंग से अभिव्यक्त करना, क्योंकि चमचमाती हुई धूप में आकृतियों को ठीक प्रकार से दिखाने के लिये नीचे गहरी और छायादार पृष्ठिभूमि का होना आवश्यक है।
(ख) शैली का स्तर - ऐसा विदित है कि, अनेक आकृतियाँ और वर्णनों से पूर्ण इस शिल्प के होने के लिए अवश्य ही अनेक वर्षों तक कई शिल्पियों ने मिलकर कार्य किया अतएव शैली में समरूपता कहीं भी दृष्टव्य नहीं हुई बल्कि यहाँ की व्यवस्थित व परिष्कृत कला कहीं भी लक्षित नहीं होती। ये प्रशिक्षित एवं अनुभवी कलाकारों की कुशलता का परिचय देती हैं। इससे कला का स्तर उच्चता का है। साँची की कलाकृतियाँ भारतीय शिल्प के सर्वाधिक भाव प्रवण तथा सजीव उदाहरण के रूप में दृष्टव्य है। भरहुत की रूढ़िवादिता से साँची का कलाकार आगे बढ़ चुका था। उसने मौलिकता के साथ ही अपनी कला पर पूर्ण विश्वास था। साँची की कला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में तोरणों के स्तम्भों तथा नीचे की सूची के बीच केरवाली स्थान को भरने के लिए लगाई गई यक्षियाँ हैं। जॉन इरविन ने उचित ही कहा है कि "साँची की कला में आध्यात्मिकता और भौतिकता एक हो गई हैं।'
(ग) शैलीगत विभिन्नता - साँची की कला विभिन्नता की परिचायक है, जो स्थान-स्थान पर उपलब्ध होती है। दक्षिणी तोरण में दृश्यों का अंकन अधिक चपटा बनाया गया है और उभार बहुत हल्का है, जिससे धूप में आकृतियों की छाया एक-दूसरे को ढक सके। सभी आकृतियाँ एक ही सतह पर रखी हुई हैं जिससे इसका प्रभाव बोर्ड पर बने एक चित्र जैसा हो गया है। तालाब में कमलों की आकृतियाँ रूढ़िग्रस्त हैं। वे इतनी ही बड़ी हैं, जितने वन्य पशु। इसके विपरीत पश्चिमी तोरण में हाथियों की रचना अधिक सजीव तथा स्पष्ट है। छाया तथा प्रकाश के विरोध का अंकन आकृतियों को अधिक गहरा काटकर किया गया है। फूल तथा पत्तियाँ प्राकृतिक आकार की हैं। जल का अंकन लहर वाली रेखाओं से किया गया है। बरगद का वृक्ष भी अत्यधिक स्वाभाविक अंकन है। पश्चिमी तोरण शैली की दृष्टि से अधिक विकसित है। आकृतियाँ पृथक्-पृथक् देखने से अधिक संतोषजनक है पर उनमें भावात्मकता के स्थान पर यांत्रिक नियमबद्धता है, पर इन विभिन्नताओं के होते हुए भी साँची की कला में एक ऐसी एकता है जो इन आकृतियों के परे एक सूक्ष्म सूत्र के रूप में सम्पूर्ण कला में अनुस्यूत है और वह एकता है। उस समृद्ध सभ्यता तथा संस्कृति की, जिसको अपने पवित्र देवगृह के प्रति निश्चिल भक्ति थी और जो जीवन में रस तथा एकता का आनन्द लाती है।
पाश्चात्य प्रभाव - साँची की कला में वह शैलीगत भेद अधिकांशतः कलाकारों की वैयक्तिक धारणा और कौशल के कारण तो है ही, पर अंशतः इसकी विविधता के कारण अन्य भी हैं। जिसमें रूढ़िवादिता, नयी विकसित शैली का सम्पर्क तथा विदेशी प्रभाव भी हैं। विदेशी प्रभाव अभिप्रायों में स्थान-स्थान पर लक्षित होते हैं। असीरिया के फूल पत्ती वाले डिजाइन, पश्चिमी एशिया के परवाले राक्षस तथा नरसिंह, नर श्वान इत्यादि काल्पनिक पशु, सभी उस पश्चिमी कला के अंगभूत हैं, जिसमें अनेक देशों की संस्कृतियाँ मिलकर एक रूप हो गई हैं। इसके साथ ही यह प्रभाव कुछ कलात्मक विशेषताओं में भी लक्षित होता है। जैसे अवकाश प्रदर्शन का प्रयत्न, आकृतियों को ऊँचा- नीचा करके छाया-प्रकाश का उचित ध्यान रखना आदि जो इस समय ग्रीक-सीरियन कला की प्रमुख विशेषतायें थीं। फिर भी साँची की कला के सम्मिलित प्रभाव में जरा भी पाश्चात्य प्रभाव नहीं है। इन सभी तत्वों के आधार पर साँची की कला को परिपुष्ट होने में बल मिला। साँची की कला एक स्वतन्त्र, परिष्कृत एवं उत्कृष्ट भारतीय कला हो गई है। साँची के इस शिल्प में कुछ विद्वानों के अनुसार विदेशी प्रभाव की झलक स्पष्ट परिलक्षित है। इसमें कुछ हेलेनिस्टिक व कुछ भारतीय परम्परा के आधार पर निर्मित शिल्पकला स्पष्ट परिलक्षित हैं। यहाँ पर बनाये गये पंखदार पशु-पक्षी विदेशी प्रभाव से प्रभावित हैं। आकृतियों में बालों की बनावट व सलवटें विदेशी ढंग से बनाई गई हैं। इसी प्रकार बौद्ध स्तूप तथा बुद्ध सम्बन्धी जातक कथाओं में अंकन के साथ ही हिन्दू देवी-देवताओं को अंकित कर शिल्पी ने अपनी लोक भावना की छाप स्पष्ट परिलक्षित की है।
कुछ अन्य शिल्प के उदाहरण - कुछ अन्य शिल्प के उदाहरण निम्नलिखित हैं -
(1) पूर्वी दिशा वाले तोरण के उत्तरी खम्भे पर ऊपर से राजा शुद्धोधन द्वारा बुद्ध पूजा का दृश्य जिसे बोधिवृक्ष, के माध्यम से दर्शाया गया है। माया देवी का स्वप्न, बुद्ध द्वारा कपिलवस्तु प्रत्यागमन की घटना अंकित की गई है।
(2) उत्तर दिशा के तोरण द्वार के भीतरी भाग के खम्भे पर ऊपर से इन्द्र का बुद्ध के पास राजगढ़ के आगमन, एक राजा बिम्बसार अथवा अजातशत्रु) राजगढ़ से जाते हुए व नीचे राजगढ़ का वेणुवन अथवा बाँसों का जंगल।
(3) पश्चिम दिशा के खम्भे पर ऊपर महाकवि जातक, तुषित स्वर्ण में बुद्ध का उपदेश सुनते हुए।
(4) पश्चिम दिशा के तोरण द्वार के खम्भे में ऊपर राजाओं द्वारा बुद्ध की अस्थियों के लिए युद्ध का दृश्य।
(5) स्तूप II एक नई युवती खड़ी हुई जिसका दायाँ हाथ कमर पर तथा बायाँ हाथ में कमल का पुष्प दर्शाया गया है तथा दोनों ओर कमल की बेलें बनी हुई हैं। यह लक्ष्मी के स्वरूप को बनाया गया है।
(6) स्तूप - II एक कमल के तालाब में हाथी।
(7) स्तूप - III ऊपर से - मालाओं का सुन्दर संयोजन, बीच में सात बुद्ध, अन्तिम - स्वर्ग में इन्द्र, मन्दाकिनी नदी, जंगल नागराज।
साँची की कला एक स्वतन्त्र, परिष्कृत एवं उत्कृष्ट भारतीय कला है।
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